मुख्य न्यायधीश दीपक मिश्रा के कार्यकाल के दौरान सुप्रीम कोर्ट के द्वारा समलैगिकता, एडल्ट्री और मंदिर मे महिलाओं के प्रवेश को ले कर तीन ऐतिहासिक फैसले दिए गए हैं। ये ऐसे फैसले है जो केंद्र में बैठी भाजपा सरकार के ‘संस्कारी भारत’ की परीकल्पना के बिल्कुल विपरीत जाते दिखते है।
संघ और भाजपा जहां समलैंगिकता के अधिकार को देश के लिए एक खतरा मानते थे। वहीं, भाजपा और संघ आज इस फैसले का बखूबी स्वागत करते दिख रहे हैं। धारा 377 पर आये फैसले से पहले भाजपा के वरिष्ठ नेता और केंद्रीय गृह मंत्री, राजनाथ सिंह ने कहा था कि “समलैंगिता एक कानूनी और सामाजिक अपराध है, इसे बढ़ावा नहीं दिया जा सकता।”
वहीं, भाजपा के एक और दिग्गज नेता सुब्रमनीयम स्वामी ने तो इसे देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा बता दिया था। धारा 497 पर भाजपा के बहुत से वरिष्ठ नेताओं की राय बिल्कुल समान है। उनके अनुसार इस फैसले के आते ही विवाह जैसी संस्था को नुकसान पहुंचेगा और लोगों का भरोसा उस पर कम होगा।
इसके अलावा ज्यादातर नेता धारा 497 और सबरीमाला में महिलाओं के पक्ष मे आये फैसले का स्वागत करते हुए इसे महिला अधिकार के लिए एक अहम फैसला माना है। ‘उदार भारत’ की परीकल्पना करने वली प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व की एन.डी.ए. सरकार इन फैसलों के प्रति शुरू से ही मिलीजुली राय के साथ नरमी वाला रूख अपनाया हुआ है।
जहां कुछ नेता इसे विदेशी संस्कृति को बढ़ावा और भारतीय संस्कृति को दूषित करने वाला कानून बताया है। वहीं, दुसरी ओर वित्त मंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता अरुण जेटली ने 2015 मे इन मुद्यो पर सरकार की नरमी रूख दे चुके थेष नवंबर 2015 मे उन्होंने कहा था कि “जब दुनिया भर में लाखों लोग वैकल्पिक यौन प्राथमिकताएं अपना रहे है, यह कहना जायज नहीं है कि उन्हे इसके लिए जेल में डाल दिया जाये।
यही नहीं, संस्कृति की पक्षदार और पारंपरिक सोच रखने वाली संघ भी समलैंगिक संबंधो को लेकर काफी नरम रूख रखते हुए उसे अपाराध मानने से इनकार किया है। मार्च 2016 मे संघ के वरिष्ठ नेता दत्तात्रेय हसबोले ने एक बयान मे समलैंगिकता को अपराध मानने से इंकार किया था।
वहीं सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद संघ के प्रचार प्रमुख अरूण कुमार ने एक बयान मे कहा किए, “सुप्रीम कोर्ट की तरह हम भी इसे अपराध नहीं मानते लेकिन समलैंगिक शादियां प्राकृतिक नियमों के अनुरूप नहीं है। भारतीय
समाज में ऐसे रिश्तों को मान्यता देने की परंपरा नहीं रहीं है। इसलिए इस मुद्ये को समाज और मनोविज्ञान के स्तर पर हल किया जाना चाहिए”, जबकि धारा 377 के फैसले के दौरान कोर्ट ने कहा था कि यौन प्राथमिकता बायलॉजिकल और प्राकृतिक प्रक्रिया है कोई मानसिक बिमारी नहीं।
इंसान जैसा है उसे वैसा स्वीकार करते हुए हमे पुरानी धारणाओं को अलविदा कहना होगा। कोर्ट के फैसले भारत की बदलती जनमानस, महिला अधिकार और सामाजिक जरूरत के पक्ष में है। ये फैसले नये उदार भारत की नीव को मजबूत करते है। भाजपा और संघ के नेताओं के अलग-अलग बयानो से पता चलता है कि समलैंगिता और महिला अधिकारों को लेकर अभी भी कोई स्पस्ठीकारण नहीं है।
वहीं कई राजनैतिक विशेष्यज्ञों के अनुसार भाजपा के नेतावो द्वारा इन फैसलो के पक्ष मे दिये गये बयान सिर्फ और सिर्फ नौजवानो को रूझाने के लिए है, वो आज भी महिला अधिकार और समलैंगिकता के प्रति उतने रूढ़ीवादी है जितने पहले।
कांग्रेस का दावा है कि जहां उन्होने इन रिश्तों को मान्यता दिलवाने की दिशा मे कदम उठाए वही भाजपा ने रोड़े अटकाए है। बहरहाल धारा 377 ने बच्चों और पशुओं के साथ किये गये अप्राकृतिक यौन संबंध को अभी भी अपराध माना है और दोषी पाये जाने पर 14 साल से लेकर आजीवन कारावास तक की
सजा हो सकती है।